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यु॒वोर॑श्विना॒ वपु॑षे युवा॒युजं॒ रथं॒ वाणी॑ येमतुरस्य॒ शर्ध्य॑म्। आ वां॑ पति॒त्वं स॒ख्याय॑ ज॒ग्मुषी॒ योषा॑वृणीत॒ जेन्या॑ यु॒वां पती॑ ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yuvor aśvinā vapuṣe yuvāyujaṁ rathaṁ vāṇī yematur asya śardhyam | ā vām patitvaṁ sakhyāya jagmuṣī yoṣāvṛṇīta jenyā yuvām patī ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

यु॒वोः। अ॒श्वि॒ना॒। वपु॑षे। यु॒वा॒ऽयुज॑म्। रथ॑म्। वाणी॒ इति॑। ये॒म॒तुः॒। अ॒स्य॒। शर्ध्य॑म्। आ। वा॒म्। प॒ति॒ऽत्वम्। स॒ख्याय॑। ज॒ग्मुषी॑। योषा॑। अ॒वृणी॒त॒। जेन्या॑। यु॒वाम्। पती॒ इति॑ ॥ १.११९.५

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:119» मन्त्र:5 | अष्टक:1» अध्याय:8» वर्ग:20» मन्त्र:5 | मण्डल:1» अनुवाक:17» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अश्विना) सभासेनाधीशो ! (युवोः) तुम अपने (शर्ध्यम्) बलों से युक्त (युवायुजम्) तुमने जोड़े (रथम्) मनोहर सेना आदि युक्त यान को (अस्य) इस राजकार्य के बीच में स्थिर हुए (वाणी) उपदेश करनेवालों के समान (वपुषे) अच्छे रूप के होने के लिये (येमतुः) नियम में रखते हो (वाम्) तुम दोनों के (सख्याय) मित्रपन अर्थात् अतीव प्रीति के लिये (जेन्या) नियम करते हुओं में श्रेष्ठ (पती) पालना करनेहारे (युवाम्) तुम्हारे साथ (पतित्वम्) पतिभाव को (जग्मुषी) प्राप्त होनेवाली (योषा) यौवन अवस्था से परिपूर्ण ब्रह्मचारिणी युवति स्त्री तुममें से अपने मन से चाहे हुए पति को (आ, अवृणीत) अच्छे प्रकार वरे ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे ब्रह्मचर्य्य करके यौवन अवस्था को पाए हुए विदुषी कुमारी कन्या अपने को प्यारे पति को पाय निरन्तर उसकी सेवा करती है और जैसे ब्रह्मचर्य को किये हुए ज्वान पुरुष अपनी प्रीति के अनुकूल चाही हुई स्त्री को पाकर आनन्दित होता है। वैसे ही सभा और सेनापति सदा होवें ॥ ५ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह ।

अन्वय:

हे अश्विना युवोः शर्ध्यं युवायुजं रथमस्य मध्ये स्थितौ वाणी वपुषे येमतुर्वां युवयोः सख्याय जेन्या पती युवां पतित्वं जग्मुषी योषा सती हृद्यं स्त्रियं पतिमावृणीत ॥ ५ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (युवोः) (अश्विना) सभासेनाधीशौ (वपुषे) सुरूपाय (युवायुजम्) युवाभ्यां युज्यते तम्। वा छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीत्यप्राप्तोऽपि युवादेशः। (रथम्) रमणीयं सैन्यादियुक्तं यानम् (वाणी) उपदेशकाविव। इञ् वपादिभ्य इति शब्दार्थाद्वणधातोरिञ्। (येमतुः) नियच्छतः (अस्य) राज्यकार्य्यस्य मध्ये (शर्ध्यम्) शर्द्धेषु बलेषु भवम् (आ) (वाम्) युवयोः (पतित्वम्) पालकभावम् (सख्याय) सख्युः कर्मणे (जग्मुषी) गन्तुं शीला (योषा) प्रौढा ब्रह्मचारिणी युवतिः (अवृणीत) स्वीकुर्य्यात् (जेन्या) जनेषु नयनकर्त्तृषु साधू (युवाम्) (पती) अन्योऽन्यस्य पालकौ ॥ ५ ॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा ब्रह्मचर्यं कृत्वा प्राप्तयौवनावस्था विदुषी कुमारी स्वप्रियं पतिं प्राप्य सततं सेवते यथा च कृतब्रह्मचर्यो युवा स्वाभीष्टां स्त्रियं प्राप्यानन्दति तथैव सभासेनापती सदा भवेताम् ॥ ५ ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे ब्रह्मचर्ययुक्त युवती विदुषी कुमारी कन्या आपल्या पतीचे प्रेम प्राप्त करून निरंतर त्याची सेवा करते तसेच ब्रह्मचर्य पालन केलेला तरुण पुरुष आपल्या प्रीतिनुकूल इच्छित स्त्रीला प्राप्त करून आनंदित होतो. तसेच सभा व सेनापती यांनी सदैव व्हावे. ॥ ५ ॥